भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सपनगिलहरी / अहिल्या मिश्र
Kavita Kosh से
कल का
एक मधुर सपन
आज गिलहरी बन
मेरे आँगन के
गुलाब की पंखुड़ियों पर
फुदक रहा है।
किन्तु अब तो
मेरे आँगन में
बबूल की
कंटीली झाड़ियाँ
निकल आईं।
क्या? क्या? क्या?
इस पर भी
वह सपन गिलहरी
उसी तरह दौड़ पाएगी?
या-या-या-
यों ही कल्पना बनी रहेगी
भविष्य की दहलीज़ पर
सच ?
वह केवल परछाई बनकर
अछूतों सा
अछूता ही बना रहेगा।
और-और-और-
उसे छूने को
मेरे हाथ कंपकपाते रहेंगे
उसे महसूसने को
मेरा मन
छटपटाता रहेगा।
गुलाब की सुगंधों को
हवाओं की
सिहरन बेधेंगे
और पंखुड़ियाँ भी छिल देंगे
एहसास के सिकुड़नों को
और
बस!
सूना तथा एकाकी
बच जाएगा मेरा मन
सन्नाटा झेलने को
अनवरत ।
अहर्निश ।
अश्रु लेखन को।