सपना था कि हक़ीकत / प्रज्ञा रावत
कहाँ-कहाँ जाता है मन 
कहाँ-कहाँ भटकता है मन 
कहाँ-कहाँ लौट-लौट कर 
अटकता है मन 
ये तन-मन की भटकन एक अजीब-सा 
अवसाद छोड़ जाती है। 
अन्दर से उठती हूक 
यकायक तब्दील होने लगती है 
एक पराजित होते मौसम में 
और हम पाते हैं ख़ुद को डूबा हुआ 
दुख की गहरी 
अन्तहीन काली खाई में
 
जहाँ ना ओर है, ना छोर 
पकड़कर किसी तरह बचे रहें 
ऐसा भी नहीं कुछ आसपास 
सहारे के लिए उठे कुछ हाथ भी 
तब तक हो चुके होते हैं ओझल 
दृश्य अब साफ़ है 
गहरी काली खाई
या खुला काला आसमान 
कुछ तय करना ही होगा उसे 
सोचते-सोचते गले की ख़राश का 
गीलापन भी सूखने लगता है
। 
अरे कोई! एक घूँट पानी तो दो 
वो बोल रही है 
लेकिन आवाज़ गायब!
ये कौन-सी घड़ी या कैसा 
समय है ऐसे कयास लगाना 
एकदम बेमानी था इस समय 
इससे भी ज़्यादा यह कि ये 
सपना था कि हक़ीकत!
हाँ, इस बीच एक-एक कर सारी बातें 
याद आती हैं जिन्हें सुनते-सुनते 
इस अवस्था तक पहुँची वो 
कड़क हिदायतें 
कि रोना नहीं है 
बैठना नहीं 
रोना नहीं, चाहे कुछ हो तो 
आँसू झर-झर भीतर बहते हैं 
बाहर सब सूखा
अन्दर सब गीला।
	
	