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सपनें सुखाती औरत की कविता / कुमार कृष्ण

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तुम्हारी कविता है सोने के पाँव वाली चिड़िया
बादलों की प्यास
सपनों का विश्वास
संवेदना का संदूक
तुमने छुपाए अलमारियों में इन्द्रधनुष
टुकड़ा-टुकड़ा धूप
रिश्तों की बड़ी-सी गठरी
सबसे नीचे छुपाया माँ का साहस
तुमने छुपाई रंग-बिरंगी फुलकारियाँ
बनाया कविता का खूबसूरत घर
तुमने काते बेहद महीन धागे
बनाई एक लोई
छुपाना चाहा पूरी स्त्री को उस लोई में
जो थोड़ी राग में है थोड़ी आग में
थोड़ी खेत में है थोड़ी रेत में
थोड़ी क़लम में है थोड़ी किताब में
थोड़ी घर में है थोड़ी डर में
थोड़ी चीख में है थोड़ी भीख में
थोड़ी प्यार में है थोड़ी हरिद्वार में
थोड़ी रविवार में है थोड़ी सोमवार में

तुमने सिले रिश्तों के गर्म कोट
बनाए छोटी-बड़ी अंगुलियों के लिए-
तरह-तरह के दरस्ताने
ताकि ठंढ में भी बची रहे एक गर्म उम्मीद

तुमने भरे बेटियों के बस्तों में-
उम्मीद के साहस के बेशुमार पंख
तुम धोती रही सपनें बारी-बारी सुखी दिनों के लिए
इसी बीच अचानक आया कहीं से
दुःख का दरिंदा
ऐन उसी वक़्त नंगे पाँव दौड़ता हुआ आया ईश्वर
कहने लगा-
तुम हो कविता कि बहुत बड़ी उम्मीद
मैं तुम्हें देता हूँ सौ वर्ष का जीवन
तुम्हें लिखनी है अभी उस नारी की गीता-
जो आधी नर में है आधी नारायण में
लिखना है उस औरत का महाकाव्य-
जिसने पैदा किए
अपनी कोख से कई-कई ईश्वर
ताकि बचा रहे इस धरती पर-

विरासत जैसा कुछ
बचा रहे जीवन का नाद
बची रहे धरती की प्यास
बचा रहे कविता का विश्वास
बचे रहें वर्णमाला के ढाई अक्षर
खुलते रहें बार-बार रिश्तों के रोशनदान।