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सपने नहीं जानते उगना अकेले / रश्मि भारद्वाज
Kavita Kosh से
जुटाते रहना एक भीड़ अपने आस-पास
जोड़ता नहीं हमें किसी से
बहाना है यह बस
कि मानते आए हैं हम
ठण्डी पड़ जाने से पहले
ज़रूरी है सम्भाले रखना ज़िन्दगी की नरमाई
अपनी हथेलियों में
सपने नहीं जानते उगना अकेले
वह ढल जाना चाहते हैं
लेकर किसी और की आँखों का रंग
अन्त से ज़्यादा डराता है हमें
सपनों का सिमट जाना
बस, ख़ुद की आँखों तक
जबकि जानते हैं कि
उनके टूटने पर रोना होगा अकेले ही
खारापन बनने लगता है
हमारी जीभ का स्थाई स्वाद
मिठास बटोरने की बुरी
लत के बाद भी
हर शाम,
यह दुनिया हमारे हाथों से फिसल कर
डूब जाती है नमक के समन्दर में
हर सुबह,
हम मिटाते हैं हथेलियों से निशान
एक और ख़ुदकुशी के