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सपने मैंने भी देखे हैं / अज्ञेय
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सपने मैं ने भी देखे हैं-
मेरे भी हैं देश जहाँ पर
स्फटिक-नील सलिलाओं के पुलिनों पर सुर-धनु सेतु बने रहते हैं।
मेरी भी उमँगी कांक्षाएँ लीला-कर से छू आती हैं रंगारंग फानूस
व्यूह-रचित अम्बर-तलवासी द्यौस्पितर के!
आज अगर मैं जगा हुआ हूँ अनिमिष-
आज स्वप्न-वीथी से मेरे पैर अटपटे भटक गये हैं-
तो वह क्यों? इसलिए कि आज प्रत्येक स्वप्नदर्शी के आगे
गति से अलग नहीं पथ की यति कोई!
अपने से बाहर आने को छोड़ नहीं आवास दूसरा।
भीतर-भले स्वयं साँई बसते हों।
पिया-पिया की रटना! पिया न जाने आज कहाँ हैं :
सूली पर जो सेज बिछी है, वह-वह मेरी है!
इलाहबाद, 6 जनवरी, 1949