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सपने सभी जले / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
बने बिजूके हम सब
वर्षों से चुपचाप खड़े
सिसक रहीं मन की इच्छाएँ
सपने सभी जले
हम बागों के फूल जिन्हें खुद
माली ही मसले
नर गिद्धों के
सम्मुख हम सब
बस मांसल टुकड़े
सुबह हुई लेकिन कमरे की
खिड़की नहीं खुली
मन के अंदर अलगावों की
नफरत सिर्फ घुली
ऐसे में सद्भाव-शांति की
खातिर कौन लड़े
सत्ता-सुख की पृष्ठ भूमि हम
बनकर सिर्फ रहे
प्रश्नों के दावानल में हैं
उत्तर रोज दहे
हम बिन आिखर प्रतिरोधों के
अक्षर कौन गढ़े