सपने / अनुक्रमणिका / नहा कर नही लौटा है बुद्ध
वह आदमी सपने बोता है।
पचास बरस सपने बोता हुआ वह धरती के चप्पे-चप्पे हो आया। उसके बोए
सपनों के पेड़ उगे। पेड़ों पर फल आए। फलों के बीज गिराए और सपनों की नई
पीढ़ियाँ उग आईं।
पचास बरस बाद अपने आखि़र पड़ाव पर वह बोए सपनों की गिनती करता है।
वह गिनता रहता है-एक, दो, तीन...। बीच में कहीं ग़लती हो जाती है और वह
फिर से शुरू करता है-एक, दो, तीन...।
गिनती ख़त्म होने क इन्तज़ार में दिन बीतते हैं। दुबारा सपने बोने को निकलने की
तैयारी करते करते वह रुक जाता है कि कोई ग़लती और दिख जाती है।
सपनों की नई पीढ़ियाँ उगती रहती हैं।
2.
सपने पालता रहा हूँ। बोने के लिए क्यारियाँ नहीं हैं। बंजर धरती में अकसर ही
मुरझा जाते हैं मेरे बोए सपने। मेरा अपना, मेरी धरती का, मेरे संसार का नश्वर
होना तीखा एहसास बन कचोटता है हर क्षण। विक्षिप्त हूँ, बोता ही रहता हूँ सपने।
मैं वहीं हूँ। युक्ति मानकर जिन सपनों को बोता था तब, विक्षिप्त होकर बोता हूँ
उन्हें अब।
3.
चोर मन चोरी-चोरी सपने देखता है। सपनों में छोटी-छोटी चोरियाँ होती हैं। रोमाँच
भरी इन चोरियों में इतिहास भूगोल की बड़ी फ़तहों जैस मज़ा होता है।
सपने फेसबुक के लिए एडजस्ट हुए आते हैं। एक दो वाक्य हो जाते ही करवट
बदलनी पड़ती है। ब्लैक होल में सिमटते शब्दों में बयाँ होते हैं हजारों वर्षों के
प्रेमालाप।
छोटे-छोटे ख़याल, छोटी-छोटी कविताएँ,
लम्बे तनाव और छोटे ही होते जा रहे सपने।
4.
वह आदमी सपनों में सपने देखता है। वह सपनों में बेचैन रहता है कि उसे सपने
देखने हैं। उसे कोई परवाह नहीं कि धरती रो रही है। आस्माँ रो रहा है। उसे सपनों
की परवाह है।
अगर सपनों में सपनों की शृंखला को एक अर्द्धसैनिक सिपाही आकर तोड़ दे तो?
5.
सपने जीने लायक हुआ करते थे। हवा, पानी, ज़मीं सब कुछ ज़हरीले हो गए।
अब सपनों में ज़हर घुलने लगा है। नींद में आदमी लड़पता है जैसे अंग-अंग में
फैल रहा हो ज़हर। जागने पर दुनिया सपनों जैसी ज़हरीली लगती है। घबराकर
वह वापस सपनों में लौट जाता है। लगातार सोने और जागने के बीच जी रहा है
आदमी।
6.
सपनों में दुःखों के फ़रिश्ते आते हैं
उदारता के साथ वे दुःख बाँटते हैं
सपनों में देखते ही देखते
मुस्कान आँसुओं में बदल जाती है
नींद टूटती है। वह चीखती है।
पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या?
पेड़ें को गर्मी नहीं लगती क्या?
मैं घर में था।
बिजली गई घर से भागा।
दफ़्तर आयां
वहाँ कौन बना सुभागा।
छुट्टी के दिन।
इधर भी गर्मी, उधर भी गर्मी।
और खिड़की के बाहर।
पेड़ खड़े यूँ सहजधर्मी।।
कोई न भेद जात पात का।
बरगद, अशोक, नीम वगै़रह
बड़े मजे़ से सभी देख रहे।
गर्मी में मेरा यूँ रोना।।
सूख सूख पत्ते पीले हो जाएँगे।
पर इसी बात से ख़ुश कि,
जल्दी हम गीले हो जाएँगे।
मुझे न मिलता चैन।
परेशान दिन बेचैन रैन।
यह गर्मी कब जाएगी।
कब ठण्डी हवाएँ आएँगी।
झल्लाता हूँ देख-देख
पेड़ों को गर्मी नहीं लगती क्या