सपने / पवन चौहान
मैं गढ़ने लगता हूँ
फिर वही सपने
ढेरों सपने
पर नहीं बतियाता किसी से
पूरा हुआ मेरा सपना
दे देता है खुद ही जबाब
और
एक करारा तमाचा
मेरे खास
अपने दुश्मनों को
टूटता है हौंसला कई बार
जब लगते हैं बिखरने सपने
बर्षों से संजोए
खूब सारे
अच्छे-अच्छे
बड़े-बड़े
छोटे-छोटे
रंग-बिरंगे
खून पसीने से सींचे सपने
लहुलुहान होते ही उनके
मैं किंकर्तव्यविमूढ़
ताकने लगता हूँ दुनिया को
दोनों आंखों से
पूरी नजर को ठहराते हुए
सुनने लगता हूँ
दोनों कानों को खूब खुला
और बड़ा-बड़ा करके
समझने लगता हूँ लोगों को
तेज हथियारों से लैैस जो
चाहते हैं मेरा दिमाग खरोचना
उसे तहस-नहस करना
ताकि देख न पाऊं मैं
और सपने
ढेर सारे सपने
डरे सहमे लोग
मेरे मरे सपनों को भी
मारतेे हैं
काटते हैं
एक-एक अंग टटोल
उनकी आत्मा का गला घोंटने की कोशिश में
खुद घुटते हैं
जलते हैं
भुनते हैं
और
कुछ सपनों का पता मिलने पर
बड़े-बड़े छिदरे दॉंत निकाल हंसते हैं
परंतु वे शायद यह नहीं जानते
यही हंसी
देती है मुझे संबल
और नए सपनों को
पैदा करने का जुनून भी