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सपने / विजय कुमार विद्रोही

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अपनों का , सपनों का , रिश्तों का था ऐसा याराना ।
एक साथ जीवन में हरदम रहता था आना – जाना ।
इनका रिश्ता सुखद,सुकोमल जल-मछली के जैसा था ।
अपना मधुबन पुष्प तो,सपना सुंदर तितली जैसा था ।
रिश्ते,अपने,सपने तीनों अच्छे साथी बनके रहते थे ।
कुसुम-भ्रमर तो कभी कोई दो दीपक-बाती रहते थे ।
 
फिर अपने ने रिश्ते के कानों में कुछ-2 बात कही ।
सपना भी अपना ही था ना बात ये उनको याद रही ।
रिश्तों ने , अपनों ने जब सपनों का यूँ प्रतिकार किया ।
सपनों ने अपनों से इस रिश्ते को भी स्वीकार किया ।
अपनों से जब सपनों के रिश्ते टूटे चकनाचूर हुऐ ।
तब वो सपने अपनों से , रिश्तों से इतना दूर हुऐ ।

अपनों से सपनों के बंधन की जो नाज़ुक डोरी है ।
रिश्तों की सतरंगी दुनिया में भी कोरी-कोरी है ।
अपनों के बिन सपना सपने जैसा लगता है ।
फिर भी रिश्ता सपने से क्यूँ अपने जैसा लगता है ।