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सपनों का कॉपीराइट नहीं होता / मृदुला सिंह

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झोपड़ पट्टी की लड़कियाँ भी लड़कियाँ ही हैं
उनके सपनों में भी
उतरते हैं गुलाबी रंग
यह अलग बात है कि
उनके हिस्से आते हैं
सिर्फ सियाह रंग

किसी रेशमी पोशाक की कतरने बटोरती
ये जिजीविषा से भरी
गुलाबी रंग चुनती हैं
भरना चाहती हैं
फ्रॉक की सुराखों को
जैसे ढंकना चाह रही हों
ईश्वर की सच्चाई

नीली स्कर्ट और गुलाबी रिबन
बाँधे
स्कूल जाती हुई ये लड़कियाँ
जगती आंखों के स्वप्न में
उतार लाती हैं आसमान
अपनी हथेलियों पर

इनके बस्ते, किताबें, कलम
सब गुलाबी हो जाते हैं
मन ही मन वार्षिकोत्सव मनाती
उत्साह से कहती हैं वंदेमातरम
तब पुतलियों में
उभर आतीं है नाजुक गुलाबी पंखुड़ियाँ

रात जमीन पर उतर रही होती है
पखेरू सो रहे होते हैं पेड़ों पर काली चादर ताने
उस समय
झोपड़ियों में
फटे बोरे में सिमटती,
ऊंघती
ये लड़कियाँ देख रही होती हैं
गुलाबी रंग के सुंदर सपने

सूरज उगना छोड़ दे
सांझ का पीला रंग उड़ जाये
बुझ जाएँ आकाश के तारे
पथरा जाए कुँए का पानी
बंजर हो जाए धरती
पर उन लड़कियों के सपने शाश्वत हैं
नही सिरायेंगे उनके सपनो से गुलाबी रंग
क्योंकि अभी सपनो का कॉपी राइट नहीं हूआ है