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सपनों का गांव / रामानुज त्रिपाठी
Kavita Kosh से
ईगुर सी धूप और काजल सी छांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।
यद्यपि भुलावे में
लम्हें छले गए,
सांसो के पर्याय
बनने चले गए।
सूनी पगडंडी से थके-थके पांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।
पांव को फैलाए,
लम्बी चादर ताने
मसनद सवालों की
रखकर के सिरहाने
खामोशी लेट गई हर ठांव-ठांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।
हिस्से का लिए हुए
जख्मों का केवल धन,
अड़े हुए हैं अब तक
कुछ जिद्दी संबोधन
जिन्दगी की चैसर लगा करके दांव
एक प्यास लूट गई सपनों का गांव।