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सपनों का बाजार / मनीष मूंदड़ा

Kavita Kosh से
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जि़न्दगी एक बाज़ार है... सपनों का
और सारे जि़ंदा लोग, सौदागर, सपनों के
सपनें देखना, दिखाना, सपने बेचना, बिकवाना
सपनों को तोडना, जोडना और फिरसे सपनें संजोना
इन्हीं सिलसिलों के बीच, जि़न्दगी का बाज़ार चलता रहता हैं
अनवरत
ज़रूरतें और समय के अनुसार
बदलता रहता है जि़ंदा लोगों का किरदार
कभी सपनों के खरीदार, तो कभी सिपहसलार
कभी खुद्दार, तो कभी मक्कार
पर होता हमेशा है सपनो का साथ
सपनें,
चाहे जीने के हों या फिर मौत के
ख़ुशियों के या फिर आँसुओं के
होता है सौदा जि़न्दगी के बाज़ार में
अनवरत, निरंतर
सपनों में सच का साथ तब तक, जब तक हो सब अपने अनुसार
वरना झूठ से कोई दुश्मनी भी तो नहीं
सपने हर क़ीमत पर, सौदा हर सीरत पर
रंग बिरंगे, नन्हें से, कोतूहल से सपनों की कमी दिखती है बाज़ार में
पर फकऱ् किसको पड़ता है, सौदा ही तो है
बिकता वह ही सपना है जिसके खरीदार होते हैं
पलते वह ही सपनें है, जिनकी माँग होती हैं बाज़ार में
वरना कई सपनें, सहमे से, सकुचाए से रौंधे पड़े हैं
हजारों हजार, जि़न्दगी के बाज़ार में।