सपनों का रंग-बिरंगा मौसम / सुरेन्द्र स्निग्ध
किसी अज्ञात अन्तरिक्ष के
ग्रह-पिण्ड से छिटक कर
एक नैसर्गिक चमक के साथ
मेरे जीवन में आई थी
वह लड़की ।
सघन लम्बे काले बालों
के बादलों से
बार-बार ढँक देती थी
मेरा चेहरा
चुम्बनों की बरसात से
आँखों की चमक से
कर देती थी आर्द्र
कर जाती थी इंजोत
मैं बदल जाता था
ग्रह-पिण्ड में
घिर जाता था प्रकाश वृत्त के बीच ।
मैं हर शाम पहुँचता था
उसके पास
फुलपैण्ट के पॉकेट में
लेकर ढेर-सारे
रंग-बिरंगे
बोगनवेलिया के पत्ते।
इन कोमल
रंग-बिरंगे पत्तों से
मैं सजाता था उसके गोरे-गोरे स्तन
वह कहती थी --
तुम बना रहे हो
मेरे स्तनों पर
रंग-बिरंगे सपनों की तितलियाँ
देखना, मैं उड़ जाऊँगी
अनन्त आकाश में
मिल जाऊँगी ग्रह-पिण्ड से
इन्हीं रंगीन पंखों के सहारे
रंगों, रोशनियों और ख़ुशबुओं से
भरी होती थीं हमारी शामें ।
अचानक वह लड़की
हो गई विलुप्त
उड़ गई अन्तरिक्ष में
मिट गए सारे रंग
धुल गई सारी ख़ुशबू
समाप्त हो गई आर्द्रता
सपनों का रंग-बिरंगा मौसम
बीत गया था ।