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सपनों की रज आँज गया / महादेवी वर्मा
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सपनों की रज आँज गया नयनों में प्रिय का हास!
अपरिचित का पहचाना हास!
पहनो सारे शूल! मृदुल
हँसती कलियों के ताज;
निशि ! आ आँसू पोंछ
अरुण सन्ध्या-अंशुक में आज;
इन्द्रधनुष करने आया तम के श्वासों में वास!
सुख की परिधि सुनहली घेरे
दुख को चारों ओर,
भेंट रहा मृदु स्वप्नों से
जीवन का सत्य कठोर!
चातक के प्यासे स्वर में सौ सौ मधु रचते रास!
मेरा प्रतिपल छू जाता है
कोई कालातीत;
स्पन्दन के तारों पर गाती
एक अमरता गीत?
भिक्षुक सा रहने आया दृग-तारक में आकाश!