भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपनों के पंख / सुदर्शन रत्नाकर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहले मुझे मुक्त आकाश दो
फिर मेरी उड़ान देखना
अपने सक्षम पंख कैसे फैलाती हूँ
कैसे उड़ती हूँ ऊँचा।

पिंजरे में बंद हो, पंखों की सक्षमता
खतम हो जाएगी
उसकी परिधि के भीतर
रह जाऊँगी मैं शून्य मात्र।

कुएँ के मेंढ़क की तरह
दीवारों से टकरा कर गिरती रहूँगी
और तुम तमाशा देखते रहोगे,
कुएँ की मुंड़ेर के ऊपर।

मत-बाँधों झूठी रूढ़ियों के बंधनों में
मुझे भी तो जीने का अधिकार है
अहम् की झूठी परम्पराओं से
मुक्त करो मुझे

खोलने दो मुझे अपने सपनों के पंख
फिर मेरी ऊँचाइयों को देखना
मैं उड़ सकती हूँ

ऊँची बहुत ऊँची
तुम्हारी ऊँचाई से भी ऊँची।