भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सपनों के मुताबिक़ / संजय चतुर्वेदी
Kavita Kosh से
हम नहीं चाहेंगे
कि सौ साल बाद
जब हम खोलें तुम्हारी क़िताब
तो निकले उसमें से
कोई सूखा हुआ फूल
कोई मरी हुई तितली
हम चाहेंगे
दुनिया हो तुम्हारे सपनों के मुताबिक़।