भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सपनों में तुम आते हो / डी .एम. मिश्र
Kavita Kosh से
सपनों में तुम आते हो
लेकिन फिर खो जाते हो
बादल बनकर छाते हो
बिन बरसे उड़ जाते हो
कैसे मुझको नींद पड़े
ख़्वाबों में आ जाते हो
तुमसे बात नहीं करनी
क्यों इतना तड़पाते हो
आंखें लोग गड़ाये हैं
छत पर किंतु बुलाते हो
तुम ही घायल भी करते
मरहम तुम्हीं लगाते हो
मुझको बुद्धू समझ रहे
झूठे ख़्वाब दिखाते हो