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सपनों में रोती हुई स्‍त्री / प्रेमचन्द गांधी

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मेरे सपनों में अक्‍सर
वो आती है रोती हुई
उसकी घुटी-घुटी चीख़ें
काँपती हुई दीये की लौ जैसी आवाज़
अन्धेरों को चीरकर मुझ तक आती है

भूख से बेहाल
पति से परेशान
बच्‍चों से उपेक्षित
एक स्‍त्री रोती है चुपचाप
उसकी रुलाई मेरे गले में
उमड़ती-घुमड़ती है
एक आवाज़ शब्‍दों में बदलने को बेताब हो जैसे

सदियों से रोती आई है एक स्‍त्री इसी तरह
कविता में उसकी रुलाई का
कोई अनुवाद सम्भव नहीं हुआ मुझसे
उसकी कातर आँखों में नहीं तैरते
प्रेम-प्रणय के स्‍वप्‍न भरे दृश्‍य
जाने कितने दरवाज़ों में बन्द हैं
उसकी पीड़ा और दुखों की गठरियाँ बेहिसाब
जाने कितनी दीवारें खड़ी कर दी हैं उसने
अपनी दुनिया के इर्द-गिर्द कि
उसकी रुलाई सिर्फ़ सपनों में ही सुनाई देती है

मैं थाम लेना चाहता हूँ उसकी हिचकियाँ
पोंछ देना चाहता हूँ उसके आँसू
दुनिया के सामने उसकी नक़ली मुस्‍कान का परदा
हटा देना चाहता हूँ मैं लेकिन
एक हाथ से मुँह ढाँप कर
रुलाई को बाहर आने से बचाती हुई वह
दूसरे हाथ से रोक देती है मुझे भी

मेरे सपनों में हाहाकार मचाने वाली
कभी दिन के उजालों में मिले तो
कैसे पहचान पाऊँगा मैं
एक रोती हुई स्‍त्री
दिन की रोशनी में सिर्फ़
मृत्‍यु की अभ्‍यर्थना करती है

व्रत, उपवास और प्रार्थनाओं से
एक अज्ञात ईश्‍वर को रिझाकर
जीवन बदल देने की प्रार्थना करती स्‍त्री के आँसू
पूजाघरों में स्‍वीकार्य नहीं होते
ज़िन्दगी के दुखों का मैल है आँसू
तमाम धर्मों में वर्जित हैं
स्‍त्री के आँसुओं के नैवेद्य

स्‍वप्‍न के जाने कौनसे क्षण में
अदृश्‍य हो जाती है वह स्‍त्री
भूख और पीड़ा कब
बच्‍चों की लोरियों की तरह
नींद की चादर तान कर
सुला देती है उसे और मुझे

सुबह की ठण्‍डी हवा में
सूख चुके आँसुओं की नमी है
पक्षियों के कलरव में जैसे
उस स्‍त्री की रुलाई के गीत हैं
बादलों की चित्रकारी में उसका चेहरा है
और मैं आकाश की तरह
चुपचाप सुनता हूँ जैसे
पृथ्‍वी का हाहाकार ।