सपनों में होने पर भी खुश था / रवीन्द्र दास
सपनों में विचरना नियति थी उसकी
कोई शौक या स्वेच्छा नहीं।
पिछली जिंदगियों में बिताए थे उसने भी सुख और आराम के हकीकी वक्त
उसकी याद अब भी है उसके जेहन में
किसी ताजे घाव की मानिंद
कि कोशिश करके भी नहीं भुला पा रहा था अपना अतीत।
उसने किया था ज़िक्र कई बार
नशे की हालत में
करता हुआ बक-बक बेसिर-पैर की बातें।
मुआफी की शक्ल में मैंने भी सुना करता था झूठ सी सचाई
कि नही मिल पाया कोई मुनासिब उस्ताद
वरना नज्मों की कमी क्या थी मेरे दिल में।
ऐसा ही कहता था तब भी
ऐसा ही कहता है अब भी
लेकिन आ गया है फर्क मेरे सुनने में।
न जाने क्यों करने लगा हूँ यकीन उसपर
हर मुनासिब कोशिश दिलाता हूँ अहसास
कि मुझे उसपर यकीन है सौ फीसदी।
उसकी बातें मुझे लगती हैं बेहद खुबसूरत
बेहद हसीन
वह खुश रहे।
होगा सपना उसके लिए
मेरे लिए तो उसका सपना भी सच है,
शायद सच से भी ज्यादा खुबसूरत और दिलचस्प ।
यह जानकर मुझे बेहद इत्मिनान है
कि वह खुश है
सपने में होने के बावजूद।
मैं करता हूँ दुआ, अगर कहीं वजूद है खुदा का
कि टूटे न उसका सपना,
बिखरे न उसकी खुशी,
खुशी से ज्यादा दौलत लेकर भी कोई कर ही क्या लेगा !