भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सपनो आयो / हीरालाल शास्त्री

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सपनो आयो एक घणो जबरो रे
सपनो आयो।
काळी पीळी आंधी उठी
चाल्यो सूंट घणो जबरो रे
सपनो आयो।
थळ को होग्यो जळ, थळ जळ को
संपट पाट घणो जबरो रे
सपनो आयो।
चैरस भोम में डूंगर बणग्या
माया-जाळ घणो जबरो रे
सपनो आयो।
टीबा ऊठ नदी बै लागी
फैल्यो पाट घणो जबरो रे
सपनो आयो।
नदियां सूख’र टीबा बणग्या
बेढब भूड घणो जबरो रे
सपनो आयो।
ऊंचा छा सो नीचा उतरया
निचलां ठाठ घणो जबरो रे
सपनो आयो।
टणका छा सो निमळा होयग्या
निमळां राज घणो जबरो रे
सपनो आयो।
म्हैलां की तो टपरी बणगी
टपरी म्हैल घणो जबरो रे
सपनो आयो।
तोसाखाना खाली होयग्या
खाली पेट भरयो जबरो रे
सपनो आयो।
म्हांको सपनो सांचो होसी
समझो भेद घणो जबरो रे
सपनो आयो।