सप्तदश प्रकरण / श्लोक 11-20 / मृदुल कीर्ति
अष्टावक्र उवाचः
मुक्त जन सर्वत्र शांत, पवित्र मन का है अहे,
सब वासनाओं से रहित,सर्वत्र शोभित अति महे.--११
देखता, स्पर्श, सुनता, सूंघता, खाता हुआ,
आत्म ज्ञानी अलिप्त द्वंद विमुक्त, सब करता हुआ.----१२
स्तुति निंदा नहीं,क्रोधित और हर्षित भी नहीं
मन चित्त नीरस मुक्त जन का, लेता देता भी नहीं.----१३
न ही प्रितिमय नारी को अथवा मृत्यु देख समीप में,
अविचल मना मन चित्त स्थित, ब्रह्म रूप अरूप में.----१४
सुख दुःख में, नर नारी में, संपत्ति और विपत्ति में,
सर्वत्र सम दृष्टा है ज्ञानी, सृष्टि में या व्यक्ति में.-------१५
आत्म ज्ञानी को प्रयोजन विश्व से किंचित नहीं,
न क्षोभ, करुणा, दीनता, आश्चर्यमय चिंतित नहीं.----१६
निर्लिप्त, न विषया विद्वेषी, न विषय स्पंदित रहे,
प्राप्त और अप्राप्त में, मन विरत आनंदित रहे.----१७
हित अहित, कारण अकारण का नहीं दौर्बल्य है,
जो मुक्त जन निर्द्वंद मन,चित्त शून्य, अथ कैवल्य है.----१८
अंतर्गलित आशाएं , दृढ़ मन अहम ममता कुछ नहीं,
करे कर्म पर निर्लिप्त मन, यदि दृष्टि क्षमता, तुच्छ मही.---१९
संकल्प और विकल्प, अंतर्मन की वृत्ति शांत है,
स्वप्न और जड़ता से वर्जित, चित्त सौम्य नितांत है.------२०