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सप्तम सर्ग (आगमनी) / राष्ट्र-पुरुष / केदारनाथ मिश्र 'प्रभात'

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उद्दंड, क्रूर, हिंसक पशुबल जब करता जग का अकल्याण
तब नाम भवानी का लेकर विक्रान्त उठाते हैं कृपाण।।

विभा की कुमारी चली आ रही
निभा की सँवारी चली आ रही

धरा हिल रही शैल-वन हिल रहा
अचंभित नखत सब, गगन हिल रहा
शिखर का हिमाच्छन्न तन हिला रहा
प्रकृति का प्रतन आयतन हिल रहा
मरण के तिमिर का भवन हिल रहा
महाकाल का भीरु मन हिल रहा

निहारो कि मलया चली आ रही
अहा, व्याल-वलया चली आ रही

अनल-बीन पर गीत गाती हुई
सुरों से स्वरों को जगाती हुई
चमकती हुई, जगमगाती हुई
विहँसती हुई, मुस्कराती हुई
उषाएँ तिलक-थाल लेकर खड़ीं
दिशाएँ विजय-माल लेखर खड़ीं

पहन पट वसंती चली आ रही
कहीं से ज्वलंती चली आ रही

मयूखी शिखाएँ कहीं छूटतीं
कहीं शृंखलाएँ पिघल टूटतीं
कहीं आँधियों में अचल चल रहे
रुधिर-दीप सौ-सौ कहीं जल रहे
चमक बिजलियों की बढ़ी जा रही
धरा चीर ज्वाला कढ़ी आ रही

भुजग-भोग-शयना चली आ रही
कहीं से सुनयना चली आ रही

नया युग खड़ा है, नये राग ले,
हृदय में, दृगों में, नई आग ले
नया युग खड़ा है, नया साज है
नई चेतना, गति नई आज है
नया युग खड़ा है, नये गीत ले
लहू की लहर से लिखी जीत ले

सुधा ले सुनीता चली आ रही
प्रभा ले पुनीता चली आ रही

जब मुक्ति बुलाती मिलने को
संकट से घिरे कगारों पर

जब सत्य बुलाता चलने को
फुंकार-भरे अंगारों पर
कर्तव्य निमंत्रण देता जब
उन्मत्त, क्रुद्ध, तूफानों में
स्वागत को हाथ हिलाता जब
बलिदान प्रलय के गानों में

तब क्लीव काँपते हैं भय से
कायरता का देते प्रमाण
व्रत-बद्ध वीर आगे बढ़ते
माला के बदले ले कृपाण

पद-दलित राष्ट्र जब होता है
तब सैनिक शक्ति सुलगती है
पद-मर्दित होता जब स्वदेश
तब शक्ति शिवा की जगती है
जब स्वतन्त्रता कुचली जाती
तब भाले आग उगलते हैं
जब पवित्रता रौंदी जाती
तृण-तरु बन योद्धा चलते हैं

उद्दंड, क्रूर, हिंसक पशु-बल
जब करता जग का अकल्याण
तब नाम भवानी का लेकर
विक्रान्त उठाते हैं कृपाण

साधना शक्ति की करो, शक्ति से
जीवन आगे बढ़ता है
साधना शक्ति की करो, शक्ति का
सूर्य तिमिर से कढ़ता है
साधना शक्ति की करो, भक्ति का
उत्स शक्ति में पलता है
साधना शक्ति की करो, शक्ति के
तप से प्रलय पिघलता है

साधना शक्ति की करो तेज का
फूँकों, फूँको जय-विषाण
अभियान-लग्न में मुस्काकर
माला के बदले लो कृपाण

स्वप्न नहीं, अनुमान नहीं,
साकार सत्य हुंकारता
व्योम बजाता तूर्य क्रुद्ध
चल-बल को तूर्य पुकारता
वेगवान तूफान तान
प्रत्यंचा धनु टंकारता
शिव-सा शौर्य रूप धर शिवंकर
नयन तृतीय उघारता

आग बना उपराग आग
किंजल-कलियाँ भी, फूल भी
धुआँ बना धूमध्वज, धधके
धूलध्वज भी, धूल भी
तेजोत्तप्त अशोक कोक-नद
तेजोत्तप्त अशोक कोक-नद
तेजोत्तप्त बबूल भी
सायुध प्रहरी तुंग शृंग
मरु-धन्वा, वेलाकूल भी

वृक्ष-वृक्ष है लपट और लू
पल्लव-पल्लव आँच है
डंठल कहता, टहनी कहती
आज हमारी जाँच है
प्रण की काया तीक्ष्णायस की
वह न भिदेमिल काँच है
नभ से लेकर भू-मंडल की
दूरी एक कुलाँच है

बन्धनों के गर्व पर धर चरण तू स्वाधीन
जीवन-पथिक! चिर से, आदि से तू कल्पकालासीन
पार कर अगणित युगों का तिमिर-पारावार
जिसके ज्वार उठकर फैल जाते
मरण को ढँक कर जनम के अग्नि-पट से
आ रहा जो चक्र-सा गतिमान स्वर्णोज्वल प्रखर आलोक
तू उसी की व्याप्ति सीमा-हीन
जीवन-पथिक! चिर से, आदि से तू कल्पकालासीन

मृतिका के दीप की इतिहास-लिपि के दूत
तेरे स्वप्न उड़ते हैं वहाँ
जिस ठौर फैली दूर तक बातास
मधु ले अमिट साँसों का निरन्तर
घूमता है, झूमता है
चूमता हैैैैैैैैैैैैैैैैैैै अनन्त अछोर अंचल
लहर जिसकी मधुर तेरी बीन
जीवन-पथिक! चिर से, आदि से तू कल्पकालासीन

स्वप्न नित नव भर रहा है एक ज्योतिर्मय
सुनहली रश्मियों के स्पर्श के पथ को सजाकर
चल रहा जिस पर भविष्य
अदृश्य का संकेत रँगता जा रहा है सृष्टि की प्राचीनता को
क्योंकि तू गौरव-मुकुट प्रत्येक युग का
और तेरी साँसों का प्रत्येक कंप नवीन
जीवन-पथिक! चिर से, आदि से तू कल्पकालासीन

वेग धारा का न रोको व्योम!
गंगा को उतरने दो धरा की साँस पर
गरल पीकर और तपकर आग में दिन-रात
कण-कण बन गया है आज शिव की शक्ति का उपमान
मत दो गान, मत दो स्वर्ग का वरदान
आने दो चला आता प्रबल तूफान यदि हुंकार करता
क्या होगा?
ग्रहों से ग्रह भिड़ेंगे चूर होंगे
कुछ समीप कराहते होंगे पुरानी ग्रन्थियों के छंद
कुछ सिमटते और मिटते दूर होंगे
सत्य कहता हूँ, सुनो,
त्योहार होगा वह सुनहली चेतना का प्राणवंतों की
और दीपक जल रहा होगा
सृजन की साधना की ‘लौ’ सम्हाले अग्निमय उच्छ्वास पर
वेग धारा का न रोको व्योम!
गंगा को उतरने दो धरा की साँस पर

प्राणवंतों की सुनहली चेतना का पर्व
वह महोत्सव, तेज का इतिहास
जिसका वर्ण-वर्ण कठोर तप के
स्वस्ति-मंत्रों से मुखर अभिराम
जानते हो
वह प्रकट होता हृदय की यज्ञशाला से
उमड़ता, फैल जाता,
फेंककर सब ओर सौ-सौ सूर्य
सौ-सौ चन्द्रमा, तारे
करोड़ों अनगिनत किरणें, अरुण आलोक
सारी सृष्टि में, विस्तार-भर में
प्राणवंतों की सुनहली चेतना के पर्व ने ही
है पुकारा स्वर्ग की मंदाकिनी को
और हाहाकार करती वह उमड़ती आ रही है,
आ रही है,
आज न्योछावर अमृत है
सिसकियों को पालनेवाली तड़पती प्यास पर
वेग धारा का न रोको व्योम!
गंगा को उतरने दो धरा की साँस पर

ध्वंस बढ़ता है कि भर कर बाहुओं में
नष्ट कर दे चुम्बनों से
सृष्टि की अभिनन्दनीय पवित्रता को
जो धरोहर है धरित्री की

धरोहर जो युगों के गर्व की
जो आदि से ही है खड़ी अपनी तपस्या में छिपाये
व्यष्टि और समष्टि का एकत्व
जैसे ओस को रहती छिपाये चाँदनी अनुराग-पट में
प्राणवंतों ने सुना है ज्योति का आह्वान
चल पड़ा अभियान
जय हो
वर्तमान बना रहा पथ
रक्त से लथपथ बढ़े जाते, बढ़े जाते
बटोही गीत गाते, फूल बरसाते
अमर विश्वास पर
वेग धारा का न रोको व्योम!
गंगा को उतरने दो धरा की प्यास पर

तुमने देखा है झंझा का आगे बढ़ना
कर भीषण हुंकार
देखा है तम-कोटर से किरणों का कढ़ना
झंकृत कर नभ-तार
उसी भाँति मेरे विचार! मेरे उदार
कर छिन्न-भिन्न घन-अंध-तिमिर की कारा
आगे आज बढ़ो
उसी भाँति मेरे महान्! संपूज्यमान!
गति रोक काल की, पलट नियति की धारा

बन्धनों के गर्व पर धर चरण तू स्वाधीन
जीवन-पथिक! चिर से, आदि से तू कल्पकालासीन
पार कर अगणित युगों का तिमिर-पारावार
जिसके ज्वार उठकर फैल जाते
मरण को ढँक कर जनम के अग्नि-पट से
आ रहा जो चक्र-सा गतिमान स्वर्णोज्वल प्रखर आलोक
तू उसी की व्याप्ति सीमा-हीन
जीवन-पथिक! चिर से, आदि से तू कल्पकालासीन

मृतिका के दीप की इतिहास-लिपि के दूत
तेरे स्वप्न उड़ते हैं वहाँ
जिस ठौर फैली दूर तक बातास
मधु ले अमिट साँसों का निरन्तर
घूमता है झूमता है
चूमता है वह अनन्त-अछोर अंचल
लहर जिसकी मधुर तेरी बीन
जीवन-पथिक! चिर से, आदि से तू कल्पकालासीन

स्वप्न नित भव भर रहा है एक ज्योतिर्मय
सुनहली रश्मियों के स्पर्श से पथ को सजाकर
चल रहा जिस पर भविष्य

अदृश्य का संकेत रँगता जा रहा है सृष्टि की प्राचीनता को
क्योंकि तू गौरव-मुकुट प्रत्येक गुण का
और तेरी साँसों का प्रत्येक कंप नवीन
जीवन-पथिक! चिर से, आदि से तू कल्पकालासीन

वेग धारा का न रोको व्योम!
गंगा को उतरने को धरा की साँस पर
गरल पीकर और तपकर आग में दिन-रात
कण-कण बन गया है आज शिव की शक्ति का उपमान
मत दो गान, मत दो स्वर्ग का वरदान
आने दो चला आता प्रबल तूफान यदि हुंकार करता
क्या होगा?
ग्रहों से ग्रह भिडें़गे, चूर होंगे
कुछ समीप कराहते होंगे पुरानी ग्रन्थियों के छंद
कुछ सिमटते और मिटते दूर होंगे
सत्य कहता हूँ, सुनो,
त्योहार होगा वह सुनहली चेतना का प्राणवंतों की
और दीपक जल रहा होगा
सृजन की साधना की ‘लौ’ सम्हाले अग्निमय उच्छ्वास पर
वेग धारा का न रोको व्योम!
गंगा को उतरने दो धरा की साँस पर

प्राणवंतों की सुनहली चेतना का पर्व
वह महोत्सव, तेज का इतिहास
जिसका वर्ण-वर्ण कठोर तप के
स्वस्ति-मंत्रों से मुखर अभिराम
जानते हो
वह प्रकट होता हृदय की यज्ञशाला से
उमड़ता, फैल जाता,
फेंककर सब ओर सौ-सौ सूर्य
सौ-सौ चन्द्रमा, तारे
करोड़ों अनगिनत किरणें, अरुण आलोक
सारी सृष्टि में, विस्तार-भर में
प्राणवंतों की सुनहली चेतना के पर्व ने ही
है पुकारा स्वर्ग की मंदाकिनी को
और हाहाकार करती वह उमड़ती आ रही है,
आ रही है,
आज न्योछावर अमृत है
सिसकियों को पालनेवाली तड़पती प्यास पर
वेग धारा का न रोको व्योम!
गंगा को उतरने दो धरा की साँस पर

ध्वंस बढ़ता है कि भर कर बाहुओं में
नष्ट कर दे चुम्बनों से
सृष्टि की अभिनन्दनीय पवित्रता को
जो धरोहर है धरित्री की
धरोहर जो युगों के गर्व की
जो आदि से ही है खड़ी अपनी तपस्या में छिपाये
व्यष्टि और समष्टि का एकत्व
जैसे ओस की रहती छिपाये चाँदनी अनुराग-पट में
प्राणवंतों ने सुना है ज्योति का आह्वान,
चल पड़ा अभियान
जय हो
वर्तमान बना रहा पथ
रक्त से लथपथ बढ़े जाते, बढ़े जाते
बटोही गीत गाते, फूल बरसाते
अमर विश्वास पर
वेग धारा का न रोको व्योम!
गंगा को उतरने दो धरा की प्यास पर

ध्वंस बढ़ता है कि भर का बाहुओं में
नष्ट कर दे चुम्बनों से
सृष्टि की अभिनन्दनीय पवित्रता को
जो धरोहर है धरित्री की

धरोहर जो युगों के गर्व की
जो आदि से ही है खड़ी अपनी तपस्या में छिपाये
व्यष्टि और समष्टि का एकत्व
जैसे ओस को रहती छिपाये चाँदनी अनुराग-पट में
प्राणवंतों ने सुना है ज्योति का आह्वान,
चल पड़ा अभियान
जय हो
वर्तमान बना रहा पथ
रक्त से लथपथ बढ़ जाते, बढ़े जाते
बटोही गीत गाते, फूल बरसाते
अमर विश्वास पर
वेग धारा का न रोको व्योम!
गंगा को उतरने दो धरा की प्यास पर

तुमने देखा है झंझा का आगे बढ़ना
कर भीषण हुंकार
देखा है तम-कटोर से किरणों का कढ़ना
झंकृत कर नभ-तार
उसी भाँति मेरे विचार! मेरे उदार
कर छिन्न-छिन्न घन-अंध-तिमिर की कारा
आगे आज बढ़ो
उसी भाँति मेरे महान! संपूज्यमान!
गति रोक काल की, पलट नियति की धारा

आगे आज बढ़ो
विश्व तुम्हारे स्वागत को युग-युग से खड़ा अकेला
लगा तुम्हारा विकल-प्रतीक्षा में मानवता-मेला
कर बंद काल का महामंद्र
नभ से उतार कर सूर्य-चंद्र
संस्कृति के रत्न-मुकुट में आज मढ़ो

सुषम! न तुम कोई विवाद हो
तुम आत्मा के शंखनाद हो
जिसकी लहरें प्रक्षालित कर रहीं विश्व का कूल
पीकर जिसका अमृत प्रस्फुटित होता जीवन-फूल
तुम आत्मा के मधुर छंद
जिसमें मनुष्यता, मानवता के गीत बंद
हे, तुम प्रकाश-वीणा की चिर-झंकार
तुम अनेक में एक, एक के मन की अमर पुकार
आगे आज बढ़ो
छितराकर ज्वाला-कण चारों ओर
अट्टहास करता है रक्तप-सा नृशंस शैतान
काट-काट कर मानवता की डोर
झूम-झूम कर नाच रहा हिंसा का सैन्य महान
तुम बढ़ते हो
जली हुई धरती पर कोई बिछा रहा मृदु फूल

तुम बढ़ते हो
गीत बन रहा है सिहरन का शून्य क्षितिज का कूल
तुम बढ़ते हो
एक हो रहे हैं सीमाओं के सब बिखरे तार
तुम बढ़ते हो
कण-कण में ज्वारित दिगंतव्यापी अनुकंपा, प्यार