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सप्तम स्वर / विजेन्द्र

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एक
किताब पढ़ने से
नही समझा
ज़िदगी क्या है
हरेक कठोर ने
मुझको समझाया
ज़िंदगी क्या है
इसको-
जो समझे
वही है मीर
दुनिया में
जितना कहा
उससे अधिक जानो
ज़िंदगी क्या है।

दो
काट कर पत्थर
छैनियों
कुदालों
हथौड़ों से
बनाया पहाड़ में
रास्ता
बिछायी
पटरियाँ
उँगलियांे के लोच से
सख़्त-से-सख़्त
दीवार को भी
तोड़ता हूँ हाथ से
गोलाइयाँ दीं
मेहराब छेंके
निकाले रोषनदान भी
पेच काटे
ठोंकी रपटें
किया इकसार फ़ौलाद को
हथौड़ों से।

तीन
खुले बाज़ार का
खुला जबड़ा
दिखने लगा है
विदेषी कंपनियों का
बड़ा तंबू
अब
तनने लगा है
क्या वजह है
इतना बड़ा
यह देष
पाला पड़ने लगा है
मेरी गिज़ा का
हिस्सा
गया बाहर
खून
अब घटने लगा है।

चार
बहुत सारे
इंसान
बेघर हो गये हैं
चला जिनके साथ
बड़ पैनी
ललक से
वे अब
खो गये हैं
अकेले सफ़र का भी
अपना मज़ा है
खूब
सींचना है खोत मुझको ही
बीज बोये
उगने लगे हैं।

2007