भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सफर जारी है / संतोष श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
उम्र के करघे पर
सांसों के ताने बाने से
बुनती रही सपने
कुछ बंद
कुछ खुली आँखों के
नहीं जान पाई वह सूत
जो आँखों पर धरे
सपनों की क़िस्मत
तय कर पाता
कुछ रिश्ते भी तो
बुने थे मैंने
अनजाने,अनचीन्हे
मंजिल तक
किसी का साथ न रहा
रास्ते थे बीहड़ ,
ठोकरें अनंत
मैं तनहा ही सही
मंजिल पाने की ज़िद में
अब भी पथरीले
कांटो भरे
दुर्गम रास्तों पर
मेरा सफ़र जारी है