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सफर ही बाद-ए-सफर है तो क्यूँ न घर जाऊँ / 'वहीद' अख़्तर
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सफर ही बाद-ए-सफर है तो क्यूँ न घर जाऊँ
मिलें जो गुम-शुदा राहें तो लौट कर जाऊँ
मुसलसल एक सी गर्दिश है क़याम अच्छा
ज़मीन ठहरे तो मैं भी कहीं ठहर जाऊँ
समेटूँ ख़ुद को तो दुनिया का हाथ से छोडूँ
असासा जमा करूँ मैं तो ख़ुद बिखर जाऊँ
है ख़ैर-ख़्वाहों की तलक़ीन-ए-मसलहत भी अजीब
कि ज़िंदा रहने को मैं जीते जी ही मर जाऊँ
सबा के साथ मिला मुझ को हुक्द दर-ब-दरी
गुलों की ज़िद है मिज़ाज उन का पूछ कर जाऊँ
मिरी उड़ान अगर मुझ को नीचे आने दे
तो आसमान की गहराई में उतर जाऊँ
वो कह गया है करूँ इंतिज़ार उम्र तमाम
मैं उस को ढूँढने निकलूँ प अपने घर जाऊँ
कहाँ उठाए फिरूँ बोझ अपने सिर का ‘वहीद’
ये जिस का क़र्ज है उसी के ही दर पे धर जाऊँ