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सफर / शशि सहगल

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सफर
चाहे बस का हो या ट्रेन का
मन बच्चा हो जाता है
और शरीर अभिभावक।
रास्ते में तेज़ भागते पेड़ों को गिनता
लाल पीली कारों को देखता
छोटे, मोटे, नाटे लोगों पर हंसता
मचल उठता है
तितली छूने को
दुनिया से बेखबर अभिभावक
मस्त हो जाता है इस खेल में
और तभी
आ जाता है गन्तव्य
और बच्चा
फिर से दुबक जाता है
सभी मुखौटों की तहों के
एक दम नीचे
महफूज़।