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सफर / सौरभ
Kavita Kosh से
हे चान्द!
तुम फिर निकल आए
अपने नए रूप में
हर रात भेष बदल
फिरते रहते हो तुम
किसी भटके राही की तरह
जो गोलधारा घूम
फिर वहीं पहुँच जाता है
इतना घूमकर
मैं खुद को वहीं खडा़ पाता हूँ
चान्द की तरह
अब मैं सोच रहा हूँ परेशान
मैं चला भी था कभी
या तय कर लिया अपना
रास्ता मैंने।