सफलता-सूत्र / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
दूर कर अवनी-तल-तम-तोम,
तमी-तामस का कर संहार;
दलन कर दानव-दल का व्यूह
भानु करता है प्रभा-प्रसार।
प्रतिदिवस कला-हानि अवलोक
कलानिधि होता नहीं सशंक;
समय पर सकल कला कर लाभ
सरस करता है भूतल अंक।
वायु से ताड़ित हो बहु बार
टला कब वारिवाह गंभीर;
सघनता कर संचय सब काल
बरसता है वसुधा पर नीर।
विटप-कुल होकर पत्र-विहीन,
बना कुसुमाकर को अनुकूल;
पुन: पाता है बहु कमनीय
नवल, श्यामल दल औ' फल-फूल।
शोक हर शोकित-लोक अशोक,
सहन कर ललना-पाद-प्रहार;
पहनता है तज अविकच भाव
विकच सुमनों का सुंदर हार।
धीर धार, ले धरती अवलंब,
अधिक नुच कट-छँटकर बहु बार,
पद-दलित प्रतिदिन हो-हो दूब
पनपती है रख पानिप-प्यार।
कुसुम-तरु-कंटक को अवलोक
समाकुल होता नहीं मिलिंद;
सफलता पाता है सब काल
छिन्न हो कदली-पादप-वृंद।
टले है करतब हिम बल देख
विघ्न-बाधा कृमि-कुल का व्यूह;
सहमता है पौरुष-तम देख
विफलता गृह-मक्षिका-समूह।
हुई जिसको अवगत यह बात,
सका यह मर्म मनुज जो जान,
मिली जिसको अनुभूति-विभूति,
हुआ जिसको भव-हित का ज्ञान।
सजाने को जीवन कल-कंठ
कर सुयश-सौरभ का विस्तार;
वही ले साहस-सुमन-समूह
सफलता का गूँधोगा हार।