भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सफ़र की धूप में चेहरे सुनहरे कर लिए हम ने / 'साक़ी' फ़ारुक़ी
Kavita Kosh से
सफ़र की धूप में चेहरे सुनहरे कर लिए हम ने
वो अंदेशे थे रंग आँखों के गहरे कर लिए हम ने
ख़ुदा की तरह शायद क़ैद हैं अपनी सदाक़त में
अब अपने गिर्द अफ़सानों के पहरे कर लिए हम ने
ज़माना पेच-अंदर-पेच था हम लोग वहशी थे
ख़याल आज़ाद थे लहजे गहरे कर लिए हम ने
मगर उन सीपियों में पानियों का शौर कैसा था
समंदर सुनते सुनते कान बहरे कर लिए हम ने
वही जीने की आज़ादी वही मरने की जल्दी है
दिवाली देख ली हम ने दशहरे कर लिए हम ने