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सफ़र की धूप में चेहरे सुनहरे कर लिए हम ने / 'साक़ी' फ़ारुक़ी

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सफ़र की धूप में चेहरे सुनहरे कर लिए हम ने
वो अंदेशे थे रंग आँखों के गहरे कर लिए हम ने

ख़ुदा की तरह शायद क़ैद हैं अपनी सदाक़त में
अब अपने गिर्द अफ़सानों के पहरे कर लिए हम ने

ज़माना पेच-अंदर-पेच था हम लोग वहशी थे
ख़याल आज़ाद थे लहजे गहरे कर लिए हम ने

मगर उन सीपियों में पानियों का शौर कैसा था
समंदर सुनते सुनते कान बहरे कर लिए हम ने

वही जीने की आज़ादी वही मरने की जल्दी है
दिवाली देख ली हम ने दशहरे कर लिए हम ने