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सफ़र में अब नहीं पर / विकास जोशी
Kavita Kosh से
सफ़र में अब नहीं पर आबलापाई नहीं जाती
हमारी रास्तों से यूं शनासाई नहीं जाती
रहें हम महफ़िलों में या रहें दुनिया के मेले में
अकेला छोड़ कर लेकिन ये तन्हाई नहीं जाती
निगाहों के इशारे भी मुहब्बत भी अलामत हैं
सभी बातें ज़ुबानी ही तो बतलाई नहीं जाती
बड़ी नाज़ुक सी है डोरी ये रिश्तों की बताऊं क्या
उलझ इक बार गर जाए तो सुलझाई नहीं जाती
लगाए कोई भी कितने यहाँ चेहरों पे चेहरे ही
हक़ीक़त आईने से फिर भी झुठलाई नहीं जाती
न जाने ख्व़ाब हैं कितने तमन्नाएं खिलौनों सी
मगर ये ज़िन्दगी इनसे तो बहलाई नहीं जाती
कहानी ज़िन्दगी की यूं तो दिलकश है मगर ”वाहिद”
कोई इक बार जो पढ़ ले तो दुहराई नहीं जाती