Last modified on 23 नवम्बर 2009, at 19:37

सफ़र में जो भी हो रख़्ते सफ़र उठाता है / मुनव्वर राना


सफ़र में जो भी हो रख़्ते-सफ़र<ref>यात्रा करने का सामान</ref>उठाता है
फलों का बोझ तो हर इक शजर <ref>पेड़</ref> उठाता है

हमारे दिल में कोई दूसरी शबीह<ref>तस्वीर</ref> नहीं
कहीं किराए पे कोई ये घर उठाता है

बिछड़ के तुझ से बहुत मुज़महिल<ref>ग़मगीन</ref>है दिल लेकिन
कभी कभी तो ये बीमार सर उठाता है

वो अपने काँधों पे कुन्बे का बोझ रखता है
इसीलिए तो क़दम सोचकर उठाता है

मैं नर्म मिट्टी हूँ तुम रौंद कर गुज़र जाओ
कि मेरे नाज़ तो बस क़ूज़ागर<ref>कुम्हार</ref>उठाता है

शब्दार्थ
<references/>