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सफ़र में था अब भी सफ़र कर रहा हूँ / विष्णु सक्सेना

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सफ़र में था अब भी सफ़र कर रहा हूँ।
कि जीने की कोशिश में मैं मर रहा हूँ।

चरागों को इक रोज़ बुझना पड़ेगा,
ये मैं जानता हूँ मगर डर रहा हूँ।

सिवा मेरे कुछ और उसको न भाया,
मैं उसका पसंदीदा ज़ेवर रहा हूँ।

वही तो हमारी कहानी का हीरो,
मैं जिसकी कहानी का जोकर रहा हूँ।

जुनूँ की हदें टूटती जा रही हैं,
न तुम डर रही हो न मैं डर रहा हूँ