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सफ़र में सोचते रहते हैं छाँव आए कहीं / मोहम्मद अलवी

 

सफ़र में सोचते रहते हैं छाँव आये कहीं
ये धुप सारा समंदर ही पी न जाये कहीं

मैं खुद को मरते हुए देखकर बहुत खुश हूँ
ये डर भी है की मेरी आँख खुल न जाये कहीं

हवा का शोर है, बदल हैं और कुछ भी नहीं
जहाज़ टूट ही जाये, ज़मीन दिखाए कहीं

चला तो हूँ मगर इस बार भी ये धड़का है
ये रास्ता भी मुझे फिर यहीं न लाये कहीं

खामोश रहना तुम्हारा बुरा न था 'अलवी'!
भुला दिया तुम्हे सबने न याद आये कहीं