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सफ़ेद दाग़ वाली लड़की / सुशील 'मानव'

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माड़व के कच्चे बाँस-सा हरा है माँ का मन
कर्जा-ऋण काढ़ औकात से ज़्यादा दहेज दे रहे पिता
फिर भी फ़िक्र के तीर में
कोरवर-बड़ा सा कोंचा हुआ है मन

कितनी बार तो उसने मिन्नतें की माँ से
कि मत ब्याहो मुझे माँ इन सफ़ेद दागों के साथ
कि नहीं अपनाएगा कोई पुरुष, इन सफ़ेद अभिशापों के साथ
कि जी लूँगी मैं अकेली ही
कि इतना तो योग्य मुझे बनाया ही है तुमने

पर माँ तो माँ
आखिर तक अँड़ी रही अपनी टेक पर
कि नहीं रे, छोड़ देगा तो छोड़ दे
कि एक बार हो जाए तेरा ब्याह
कि एक बार तू देख आए सासुर की देहरी
फिर न लिवा जाए तो न सही
कि एक बार तेरी देह छू तो ले कोई पुरुष
कि एक बार टूट तो जाए तेरी देह से कँवारेपन की लीक
फिर तू परित्यकता बन ताउम्र पड़ी भी रही चौखट पर तो ग़म नहीं
कि देखनेवालों की आँखों की बिलनी होती है कुँवारी लड़की
कि मरकर भी छछाती हैं कँवारी लड़की
ख़ाली माँग लिए अपने अधूरेपन की अभिशप्तता के साथ

लड़की ने धिक्कारा
क्या माँ स्त्री होकर इतना अवमूल्यित करती हो मुझे
अपनी अज्ञानता में बिटिया का हित ढूँढ़ती मुस्कुरा देती है माँ
समझ गई लड़की जब टालनी होती है कोई बात
यूँ ही पीड़ित मुस्कान मुस्करा देती है माँ
ज़्यादा तनाव से फट गई हो ज्यूँ ज़ख़्मों पर पड़ी ताज़ा पपड़ी

शगुन की पिढ़ई पे बैठी कइनी-सी काँप रही लड़की
सुहागरात में नँगे किए जाने के ख़याल रह-रहकर डरा रहे
कि क्या होगा कल, जब
उसकी देह से नोचे जाएँगे कपड़े और जेवर
बेपर्द हो जाएगा सरे-समाज
उसकी देह का सच
उसके पिता का झूठ
दुआ माँग रही लड़की कि काश !
उसकी देह से चिपक जाते कपड़े
त्वचा की तरह सदा-सदा के लिए
हाथ में हल्दी रँगाए
ख़ुद को कोस रही सफ़ेद दाग़ वाली लड़की
कि क्योंकर उसके मन में आया कभी
साँवरी रँगत से परे
गोरे होने का आधा-अधूरा ख़याल

ख़ुशी के पल में अपराधबोध के काँकर चालती
आत्मग्लानि से झन्ना हुए पिता की अन्तरात्मा
अगुवा समझा रहा
कि थोड़ी बहुत कमी तो सबमें होती है भाई
ये दुनिया खोटविहीन तो नहीं
कि सत्य पे अँड़ जाएँ तो
शादी-ब्याह ही न हो किसी का
कि रह जाएँ सबके सब, कँवारे ही

सेनुरदान के बाद माँ की ओर तिरछे नज़र ताकती है लड़की
मानो कहती हो कँवारेपन का अभिशाप टूटा
कहो तुम्हारी साध तो पूरी हुई ना माँ
सेंदुरबहरनी के वक़्त कहती है मन ही मन
सेंदुर बहारकर मेरे सुहाग की बलाइयाँ लेने वाली हे धोबइन काकी
काश कि मेरे मेरी देह के दाग़ भी झार लेती तुम

सफ़ेद दाग़ों के बरअक्स बेमानी लग रहे उसे विवाह के सारे मन्त्र
सात फेरे और सातों वचन
झूठ लग रहा
सात जन्मों तक एकसूत्र बान्धने का दावा करनेवाला गठबन्धन
एकबारगी उसके मन में उगते हैं ख़याल
कि फाड़कर फेंक दे पण्डित के सारे पोथी-पन्ने
फेंक दे खोलकर परिणय-सूत्र
वरने आए वर को गिरा दे मारकर लात
फिर करुणा-कातर पिता का चेहरा दिखते ही
आत्मविसर्जित हो जाती है लड़की
कि कहाँ-कहाँ न दौड़े पिता उसके इलाज की ख़ातिर
नून-रोटी खाकर भी महँगे से महँगा इलाज करवाया
गाँव के ओझा-वैद्य से लेकर महानगर के स्किन स्पेशलिस्ट तक
कोई भी तो न छूटा जहाँ न गए हों पिता
बेटी के सफ़ेद दाग़ों को उम्मीद में लपेटे लिए

गुज़रते वक़्त के साथ भारी होता जा रहा लड़की का मन
निजी अँगों-सा छुपा लेना चाहती है वो सफ़ेद दाग़ों को
पर दाग़ हैं कि मानो बढ़ते चले जाते हैं
हर बीतते पल के साथ
बढ़ते-बढ़ते ढँक लेते हैं दाग़ उसके पूरे वजूद को
फिर भी नहीं रुकता उनका बढ़ना
फिर माँ, फिर भाई और आख़िर में पिता को भी
अपने में समाहित कर लेते हैं सफ़ेद दाग़
ध्रुवतारा देखते वक़्त एकबारगी लगा उसे कि
उसके देह से छिटककर मानो आकाश की देह में जा चिपके हों सफ़ेद दाग़
चान्द-सितारों की शक्ल में

कितना निरीह लग रहा है लावा परछते
बात-बेबात दुनिया से अँकड़ जाने वाला बड़ा भाई
ज़रूर उसके भी मन में कल की आशंका
उग आई है नागफनी-सी

कलेवे में दूल्हे को सगुन की दही खियाती माँ को देख
लगा जैसे माँ दूल्हे को खिलाए दे रही है
उसकी देह से निकालकर सफ़ेद दाग़
माड़व हिलाई की रस्म में मानों
माड़व नहीं पिता का वजूद हिला रहे हों समधी
यूँ काठ बने देख रहे पिता

कोहबर का रँग है कि चढ़ता ही नहीं मन पे
लाल चुनरी में भी बदरँग है लड़की का मन
नैहर से विदा होती सोच रही सफ़ेद दाग़वाली लड़की
न गुण, न सऊर, न डिग्रियाँ
आज उसकी अपनी योग्यता देह ही है
और उसके अब तक का जीवन अर्जन
सिर्फ़ सफेद दाग ।