भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सबकी विदाई के मंज़र हसीन नही होते / वंदना गुप्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सुनो
कहाँ हो?
ये कैसे पल है?
ये कैसी उदासी है
देखो न
जी नही पा रहा

कभी-कभी
चाह होती है न
आम का बौर
मेरे आँगन मे भी खिले
कभी कभी
चाह होती है न
कोई अहसास
साँस बनकर
मेरी रूह मे भी उतरे
कभी-कभी
चाह होती है न
कोई अपने
होठों की हँसी
मेरे लबों पर भी सजा दे
कभी-कभी
चाह होती है न
कोई मेरी दबी
ढकी इच्छाओं को
आसमान पर लगा दे
और मुझे भी
जीने की वजह दे दे

देखो न
कितनी टूट रहा हूँ
किरच-किरच होने से पहले
एक बार आ जाओ
और मेरी तड्पती तरसती
बेचैन रूह को करार दे जाओ
एक आखिरी अहसान ही कर जाओ
मगर तुम एक बार आ जाओ न
 
देख न
आँख से आँसू भी
नही ढलक रहे
और हम रो भी रहे हैं
आ जा न एक बार
इन आँसुओं को पोंछने
जो बहकर भी नही बह रहे
 
देखो
इतनी शिद्दत से तो कभी
आवाज़ नही दी थी न
तुम जानती हो
कोई तो कारण होगा न
शायद रूह आखिरी
साँस ले रही हो
शायद उम्र की आखिरी
जुम्बिश हो और
साँस की डोर छूट रही हो

वो वक्त आने से पहले
रूह के साज़ पर
एक तराना गुनगुना जाओ
और मुझे कुछ पल के लिये ही सही
एक ज़िन्दगी दे जाओ
जानती हो न
सबकी विदाई के मंज़र हसीन नही होते