Last modified on 30 अक्टूबर 2014, at 14:24

सबके चरण गहूँ मैं / अवनीश सिंह चौहान

मेरी कोशिश
सूखी नदिया में-
बन नीर बहूँ मैं

बह पाऊँ
उन राहों पर भी
जिनमें कंटक बिखरे
तोड़ सकूँ चट्टानों को भी
गड़ी हुई जो गहरे

रत्न, जवाहिर
मुझसे जन्में
इतना गहन बनू मैं

थके हुए को
हर प्यासे को
चलकर जीवन-जल दूँ
दबे और कुचले पौधों को
हरा-भरा
नव-दल दूँ

हर विपदा में-
चिन्ता में
सबके साथ दहूँ मैं

नाव चले तो
मुझ पर ऐसी
दोनों तीर मिलाए
जहाँ-जहाँ पर
रेत अड़ी है
मेरी धार बहाए

ऊसर-बंजर तक
जा-जाकर
चरण पखार गहूँ मैं