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सबको अपने-अपने जन की / अमरेन्द्र
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सबको अपने-अपने जन की सुध आए फिर
अमरेन्दर ऐसा कोई इक गीत लिखो तुम।
बिन पावस के मोर-नृत्य हो आँगन-आँगन
हिचकी पर हिचकी खाए परदेसी साजन
बिना पठाए पाती प्रीतम दौड़े आए
साफ-साफ मोटे अक्षर में प्रीत लिखो तुम।
साँसों में कस्तूरी की खुशबू लहराए
मन गोकुल का गाँव लगे, ऐसा मुस्काए
चाहे जो भी लिखे छन्द मधुपुर के यश में
यमुना की पागल लहरों की जीत लिखो तुम।
महकेंगे कचनार प्यार के, ये महकेंगे
बिन फागुन तन-मन पलाश के ये लहकेंगे
लेकिन पहले टोडी, शाबरी, गुर्जरी में तो
रूठे पाहुन को प्राणों का मीत लिखो तुम।