सबको हंसाते रहते हैं / सुजीत कुमार 'पप्पू'
सबको हंसाते रहते हैं,
खुद दर्द दबाते रहते हैं।
कैसी अपनी भी क़िस्मत है,
हर वक़्त छुपाते रहते हैं।
उड़ जाती जब नींद उनीदी,
पलकें झपकाते रहते हैं।
लाचारी के आंसू निर्मम,
दो नैन सुखाते रहते हैं।
ख़ुद की नींद सताके सबकी,
हम भोर सजाते रहते हैं।
संध्या होते अरमानों के,
हम दीप जलाते रहते हैं।
जिस राह चले वर्षों पहले,
राह वही पाते रहते हैं।
टूटे अपने सपने सारे,
आवाज़ लगाते रहते हैं।
शायद अब क़ाबिल न रहे हम,
यह बात गुनाते रहते हैं।
अफ़साने कितने रोज़ नए,
मन को समझाते रहते हैं।
आख़िर क्यूं बेअंदाज हुए,
अंदाज़ लगाते रहते हैं।
चैन-सुकून छिन गए कैसे,
जब-तब झल्लाते रहते हैं।
मन-चंचल जब शीतल होता,
हम शब्द सजाते रहते हैं।
राग-रहित सुर-ताल मिलाते
तन्हा हम गाते रहते हैं।
अल्फ़ाज़ों का दूजा मतलब,
कुछ लोग लगाते रहते हैं।
ऐसी वैसी बातें कर वो,
चर्चा में जाते रहते हैं।
जो अल्फ़ाज़ न समझे मेरे,
अनुमान लगाते रहते हैं।
चलते-चलते सुनते-सुनते,
हम भी मुस्काते रहते हैं।
चिकनी-चुपड़ी बात न करते
हम हाथ मिलाते रहते हैं।
जब भी दुनिया ताना मारे,
हम प्यार दिखाते रहते हैं।