भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सबसे अधिक तुम्ही रोओगे / रामावतार त्यागी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आने पर मेरे बिजली-सी कौंधी सर्फ़ तुम्हारे दृग में,
लगता है जाने पर मेरे सबसे अधिक तुम्हीं रोओगे !

मैं आया तो चारण-जैसा
गाने लगा तुम्हारा आँगन;
हँसता द्वार, चहकती ड्योढी
तुम चुपचाप खड़े किस कारण ?
मुझको द्वारे तक पहुंचाने सब तो आए, तुम्हीं न आए,
लगता है एकाकी पथ पर मेरे साथ तुम्हीं होओगे !

मौन तुम्हारा प्रश्न चिन्ह है,
पूछ रहे शायद कैसा हूँ ?
कुछ कुछ चातक से मिलता हूँ -
कुछ कुछ बादल के जैसा हूँ;
मेरा गीत सुना सब जागे, तुमको जैसे नींद आ गई,
लगता मौन प्रतीक्षा में तुम सारी रात नहीं सोओगे!

तुमनें मुझे अदेखा कर के
संबंधों की बात खोल दी;
सुख के सूरज की आंखों में-
काली काली रात घोल दी;
कल को गर मेरे आँसू की मंदिर में पड़ गई जरुरत -
लगता है आँचल को अपने सबसे अधिक तुम ही धोओगे !

परिचय से पहले ही, बोलो,
उलझे किस ताने बाने में ?
तुम शायद पथ देख रहे थे,
मुझको देर हुई आने में ;
जगभर ने आशीष पठाए, तुमनें कोई शब्द न भेजा,
लगता तुम मन की बगिया में गीतों का बिरवा बोओगे!