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सबसे ऊँचाई पर एक रात / नरेश अग्रवाल

पहाड़ों के टीले में एक गाँव है
दूसरे और तीसरे टीलों में भी
सभी आपस में जुडे़ हुए हैं देवदार के पेड़ों से
और सड़कें गोल भूलभुलैया की तरह
पहाड़ों की परिक्रमा करती हुईं
सबसे ऊँचाई पर भी समतल जमीन है
जहाँ एक झील है मछलियों से भरी पड़ी
उसके पास वाले मैदान में बैठना घंटों-घंटों तक
जैसे पूरी तरह से प्रकृति का दोस्त बन जाना है
हम सब बैठे हैं यहीं एक साथ
एक साथ हमारा खाना पीना
और हल्की पीली रोशनी
अस्त होते सूरज की, पहाड़ों के पीछे से आती हुई
कभी-कभी जोरों की ठंड लगती है
कांपने लगते हैं हमारे शरीर
मन करता है सिकुड़ जाएँ धरती के भीतर
दूर जल रही सिगड़ी आग की थोड़ी राहत देती है
इतनी ठंड के बावजूद लगता है
खुशनुमा है अनुभव यह
और नये किस्म का मौसम यहाँ
हम बातें करते जाते हैं लगातार
लेकिन आँखें गड़ाये रखते हैं तपती आग पर
गर्म और ठंड का यह अद्भुत मेल
दोनों जरूरी हैं हमारे लिए
जो यादो में टहलते रहते हैं कई दिनों तक
वापस लौट आने पर भी।