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सब्र मुश्किल था मोहब्बत का असर होने तक / मेला राम 'वफ़ा'
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सब्र मुश्किल था मोहब्बत का असर होने तक
जान ठहरी न दिल-ए-दोस्त में घर होने तक
शब-ए-फ़ुर्क़त की भी होने को सहर तो होगी
हाँ मगर हम नहीं होने के सहर होने तक
सहने हैं जौर-ओ-सितम झेलने हैं रंज-ओ-अलम
या'नी करनी है बसर उम्र बसर होने तक
तेरा पर्दा भी उठा देगी मिरी रुस्वाई
तेरा पर्दा है मिरे ख़ाक-ब-सर होने तक
मुतज़लज़ल तो है मुद्दत से निज़ाम-ए-आलम
नौबत आ पहुँची है अब ज़ेर-ओ-ज़बर होने तक
फ़ुर्सत-ए-मातम-ए-परवाना कहाँ से आए
शम्अ' को मौत से लड़ना है सहर होने तक
ऐ 'वफ़ा' मा'रका-ए-इश्क़ तो सर क्या होगा
हो चुकेंगे हमीं ये मा'रका सर होने तक।