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सब-कुछ / अल-सादिक अल-रादी / अनिल जनविजय

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हवा को बहने दो
मछुआरे के चेहरे के आर-पार,
उसने ही खोला है नदी का मुहाना
पाल फैलाया है उसने, नाव का खोल बनाया है,
इस कपटी जल में गले-गले तक डूबे आदमी
तुमने ही तो शुरुआत की थी नदी से मुलाक़ात की
अब चिल्लाओ,

सुबह-सवेरे, नदी मौन धारण कर लेती है
तेज़ लहरों की वज़ह से नदी तट पर इकट्ठी हो जाती हैं
मरी हुई मछलियाँ
जिनसे आती है बड़ी तेज़ सुगन्ध
छाया में पकाते हैं जब उन्हें
उनके रुपहले छिलके
सूरज की रोशनी बटोरते हैं

चारों तरफ़ मौन ही मौन छाया है,
तभी हवा का एक झोंका आता है
और इस मौन को डरा देता है
धीरे-धीरे खुलते हैं नावों के पाल

अपनी नावों के साथ तैरते हुए पूरी रात
वे दूर तक निकल जाते हैं,
इस तरह नदी की जुताई करते हुए,
वे मछली पकड़ने के सभी रीति-रिवाज पूरे करते हैं..
रात का घुप्प अन्धेरा आँखों पर छाने लगता है

ऐ मछुआरो !
तुम लोग अपनी-अपनी नावें लेकर भोर में रवाना हुए थे,
तुम्हारे दिलों में धीरे-धीरे चढ़ा था वह रंग
धीरे-धीरे आई वह मस्ती
जिसने तुम्हारे पूरे जीवन को ही इस किनारे लगा दिया

और अब तुम्हारी यह नई प्रिय
तुम्हें धरती पर एक नए स्वर्ग में ले आई है,
जिसमें कविता ही जीवन है,
कविता ही सब कुछ है !

अँग्रेज़ी से अनुवाद : अनिल जनविजय