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सब अकेले हो गए बस / शैलजा पाठक
Kavita Kosh से
कुछ नहीं ठहरा
सिवा इस वक्त के
तू गया बातें गईं
वो गुनगुनाती धूप में
जब साथ हों कुछ देर को
कहते से हम
सुनते से तुम
वो रास्ते ही गुम हुए
ओस सी वो बूंद थी
जो झिलमिलाती थी कभी
मुझको मिली एक रात वो
बस आँख भर कहने लगी
अब ख्वाब ही आते नहीं
यूं गए तुम नींद मेरी ले गए
वक्त से कितनी शिकायत मैं करूं
सुबह सवेरे शाम, है ठहरा हुआ
ये गुजरते ही नहीं जब से गए तुम...
मोड़ का वो पेड़ भी रूठा हुआ
मुड़ गए तुम जिस जगह से राह अपनी
पतझड़ों का दौर है अब
और मौसम भूल कर भी
छू नहीं पाए हैं इसको
यूं गए तुम
सब अकेले हो गए हैं...