सब इंसान ही तो है / शीतल साहू
सदियों पहले धरा पर जन्म जीव था लिया
सालों बाद मानव अस्तित्व में था आया
तब सारे लक्षण जंतु समान ही था उसमें समाया
ना कपड़े ना समाज ना जाति और ना था धर्म
सब नग्न ही थे और थे सब समान
सबके लिए बस रोटी ही था भगवान।
हवाएँ यूं इस तरह बही
हालात यूं इस तरह बदली
कुछ वही रह गए परंपराओं के साथ
कुछ आगे बढ़ गए पकड़ परिवर्तन का हाथ
पाकर बुद्धि और युक्ति का साथ चल पड़ा विकास का रथ
साथ ही बना जाति, धर्म और बट गया देश समाज।
सबके थे दो पैर और दो ही था हाथ
सबके दो थे आँख और खून भी था सबका लाल
हाँ कुछ थे गोरे कुछ थे काले
हाँ कुछ थे छोटे कुछ थे लंबे
कुछ करते श्रम तो कुछ करते व्यापार
कुछ उठाते शस्त्र तो कुछ करते शास्त्राचार।
कार्य तो सब ही करते थे
पेट पालने और जीवन को जीने
था महत्त्व सभी का एक समान
गर थे वे मुख, बाँह, पेट और पैर
पर थे वे तो एक ही शरीर के अंग
और मोल था सबका एक समान।
फिर अतंर क्या है इन चारों में
क्या भेद दिखा और बाँट दिए रंग चारो में
है चारो एक ही गाड़ी के पहिये
गर कोई एक टूटा या कोई एक छूटा
क्या एक बिन सन्तुलित रह पाएगा समाज
क्या बढ़ पायेगा विकास के पथ पर आज।
फिर अंतर क्यो और भेद कैसे
फिर कोई ऊँच क्यो और कोई नीच कैसे
आखिर "सब इंसान ही तो है"
मन से भ्रम और अहम को छोड़िए
सबको एक साथ लेकर चलिए
समता की राह पर आगे बढिये
विकास की राह पर सब सरपट दौड़िये।