सब उतारे जनता हूँ / सरोज मिश्र
कर सको मदहोश तो ही प्रेम की मदिरा पिलाना!
रूप के मन्तर न मारो सब उतारे जानता हूँ!
आज श्रद्धा के चरण दो द्वार पर मेरे खड़े हैं!
और हम शबरी के जैसे नेह में उनके गड़े हैं!
अब समर्पण क्या स्वयं ही जब समर्पित हम हुये हैं!
जोर से डाली हिलाओ बेर सारे अनछुये हैं!
डूबना या पार करना तुम नहीं तय मैं करूँगा!
हर मचलती धार के दोनों किनारे जानता हूँ!
रूप के मन्तर न मारो सब उतारे जानता हूँ!
सीपियों में बन्द मोती, को कभी बिकना पड़ेगा!
रातरानी देवता या, सेज पर बिछना पड़ेगा!
तो अधर को चाहिए वह इस तरह चुम्बन चढ़ाए!
कसमसाये तंग चूड़ी और चट से टूट जाए!
जोगिया बाना है जिनका स्वर्ग पर अधिकार कर लें!
कुंज गलियों के ही मैं तो घर दुआरे जानता हूँ!
रूप के मन्तर न मारो सब उतारे जानता हूँ!
कैद कर लो आँख में ये प्यार जल का बुलबुला है!
मनचला पंक्षी ह्रदय का द्वार पिंजरे का खुला है!
कब किसे जाना पड़े सब कीमती सामान धर कर।
कौन किसको देख पायेगा विदा में नैन भर कर।
फिर किसी अभिशाप से होगा भ्रमित दुष्यन्त कोई!
मछलियों से मुदरियों तक खेल सारे जानता हूँ!
रूप के मन्तर न मारो सब उतारे जानता हूँ!