भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सब का यही बयान था / रोशन लाल 'रौशन'
Kavita Kosh से
सब का यही बयान था होगी किसी की लाश
पहचान ही न पाया कोई जि़न्दगी की लाश
बुनते रहे हैं अतलसो-कमख़ाब जिसके हाथ
महरूम एक तारे-कफ़न से उसी की लाश
कोई सुराग कोई निशां तक नहीं मिला
दुख की नदी में डूब गयी यूं खुशी की लाश
हर शख़्स खुद गरज है तो हर बात मस्लेहत
क्या दफन हो चुकी है दिलों में खुदी की लाश
‘रौशन’ पड़े हुए हैं वतन में हम इस तरह
परदेस में हो जैसे किसी अजनबी की लाश