सब कुछ कहने के बाद / वरवर राव / उज्ज्वल भट्टाचार्य
मेरे लिए
लिखने का परिदृश्य,
धरती की दरार से
शब्दों की ज़ंजीरों को निचोड़ते हुए
एक अन्तहीन गति है ।
लिखने में भी
दबाव और तनाव से ध्वनि पैदा होती है,
उल्लास के ताने-बाने में गूँजती हैं,
पैदा करती हैं फिर से
शब्द
जनता की भाषा
गति के साथ आगे बढ़ती हुई ।
मेरे अपने अस्तित्व में
अंकित हैं –
ताक़तें जिन्हें मैंने जिया है और जिन्हें इन्तज़ार है
आनेवाले जीवन का ।
पसीना महकते इनसान के माथे पर
ख़ून की अमिट छाप
मैं उसे पोंछने की कोशिश करता हूँ
मैं न तो छू सकता हूँ, न गन्दा कर सकता हूँ
सितारों से भरे आसमान में फैली सूरज की शानदार तस्वीर को ।
ऊपर की ओर देखता हूँ,
मेरे हाथों का श्रम
ले जाता है मुझे उन हाथों तक
जो श्रम में व्यस्त हैं
अगर मैं अपना श्रम फैलाता हूँ
मुझ तक
महसूस करता हूँ, हाँ, ले जाता है !
ख़ामोशी में पढ़ते हुए
महसूस करता हूँ एकटक देखती नज़रों को
होंठ हिलते ही ज़बान खेलने लगती है
मेरे जीवन्त तारों में
गूँजती हैं आती हुई आवाज़ें ।
मैं महसूस करता हूँ
मानों कि श्रम से
मुझे संकेत मिले हैं
इस रहस्य से भरी सृष्टि के ।
फिर भी मुझे पता है
यह सिर्फ़ हमदर्दी है
श्रम को मैंने जिया नहीं ।
मैं सिर्फ़ झकझोरते हुए जगाता हूँ अनेक को
मेरी अस्थियों से मुक़ाबले के लिए
ज्वालामुखियों को शान्त करते हुए
वसन्त के सोतों को मोड़ते हुए
धरती से जुड़ी मेरी आन्तरिक सत्ता से
शायद पावलोव के कुत्ते की तरह ।
लेकिन मैं जो
इनसान को पढ़ने का आदी हूंँ
क्या पुस्तक विकल्प हो सकता है
इस दुनिया का ?
अँग्रेज़ी से अनुवाद : उज्ज्वल भट्टाचार्य