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सब कुछ को लुटा देने का सुख / देवी प्रसाद मिश्र

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मैं घर से निकला तो मैंने सोचा कि मैंने
गीज़र तो ऑन नहीं छोड़ दिया है ।

और कहीं गैस तो नहीं खुली है ।

और अगर नल खुला रह गया होगा…तो.

और अगर हीटर चला रह गया होगा…तो.

मेरी ग़ैरमौजूदगी में पता नहीं क्या होगा ।

हो सकता है कि घर राख मिले या पानी में
डूबा ।

हो यह भी सकता है कि क्रान्ति हो जाए और
जब मैं अटैची के साथ घर पहुँचूँ तो पता लगे
मेरे घर में एक आदिवासी रह रहा है ।

मैं दरवाज़ा खटखटाऊँ – वह दरवाज़ा खोलकर
दहलीज़ पर खड़ा हो जाए और मैं उसे देखकर
विस्मित होता रहूँ ।

और मुझमें सब कुछ को लुटा देने का सुख
दिखे उसे ।