सब कुछ देख रहा है चाँद / शिव कुमार झा 'टिल्लू'
सबकुछ देख रहा है चाँद 
अर्धांगिनी को आगे करके 
नज़र झुकाकर कैसे घुस गए  माँद 
गज़ब का  शार्दुल! इसी पर मैंने 
लगाया था दाँव अपने भविष्य का 
बार बार नारियाँ होती है शिकार 
पर पुरुषो के अत्याचार का 
तुम भीरु! तो अपनी नारी को ही 
अपने दायित्व से पलायन का 
बना डाला हथियार 
बोझिल आखों से करके इशारा
कहा था उन्होंने
"सिर्फ एक बारसोच लेना 
मेरे जाने के बाद "
कौन देगा साथ तुम्हारा?
जब असाध्य व्याधि से पीड़ित 
मुझे देखने नहीं आया कोई 
मेरे मरने के बाद कौन देखेगा तुम्हे? 
बहुत पाखंडी समाज है हमारा 
जो निर्दयी व्याल हैं
होवो किये हैं कब्जा 
समाज के विचारों  पर 
जो शीलवान है वो कलंक से डरकर 
स्वार्थ और डर से सम्हलकर
कात में दुबके रह जायेंगें 
पापी तुम जैसी अवला को 
छद्म बाहुबल से चिबायेंगे 
खोजकर परखकर कोई इंसान 
जो करे आत्मिक रूप से 
अवला नारी का  सम्मान 
शर्त और चिंतन से चुनकर 
उससे जुड़कर बचाना मान 
नहीं तो फिर करते रहना 
मेरे निर्वाण का अपमान!
नहीं मानी थी मैंने 
उनकी अंतिम याचना 
अरे वह महान पति मुझसे 
मेरी ही रक्षा का
 मांग रहा था  भीख
मैंने सोचा- कैसे दूंगी धोखा?
उस इंसान को 
चीख उठी  मन के साथ रोया  दिल 
एक नन्हा आएगा आपके रूप में 
स्वामी मुझे मजबूर ना करें 
वो अंतिम बार रोये थे
आत्मा से 
आँखों में तो नहीं थी शक्ति
आंसू गिराने की
कितनी बड़ी गलती किया था मैंने 
अपने पति के स्नेह को नहीं समझा 
घर बसाना चाहिए था मुझे 
समाज से डर नहीं था मुझेे
मैं तो डर रही थी अपने आप से 
उस पति के दिए प्यार से 
फिर आये तुम 
खिल गयी दुनिया मेरी 
सोचा नवविपिन बसाकर 
बनाऊंगा तुम्हे उनकी छवि को
 शार्दूल-व्याल की तरह 
बल और शक्ति का संगम 
लेकिन क्या मेरा ही रुधिर
बन जाएगा मेरा  काल 
ब्लड कैंसर की तरह!!
सोचा जो ना था!
शिक्षा ही नहीं है सबकुछ 
जरूरी है सबल और सम्बल संस्कार
नारियाँ शिशु पैदा तो करती है
लेकिन उसे मनुष्य बनाना 
उसका बनना
भाग्य हो ना हो पर 
निर्भर है संयोग पर 
एकबार खुलकर बोल देते 
चली जाती मैं 
पर उनके पास नहीं 
विहान की पुनरावृति के भरोसे
नए कर्मपथ की तलाश में 
मैं इतनी कमजोर नहीं हूँ
जीने की कला उन्ही से ही सही
भला सीखी तो थी मैंने 
तेरा अपना चाँद तो छोटा है 
पर दिव्य गगन में घूमते हुए 
सबकुछ देख रहा है चाँद 
तुम्हारे  अंतःकरण का गणित 
जो कितना खोटा है
	
	