भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

सब कुछ नहीं होता समाप्त / मनीष मिश्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सब कुछ थोड़े ही सूख जाता है
बच ही जाती है स्मृति की नन्ही बूंद
मिल ही जाता है प्रिय का लगभग खो गया पता
अलगनी में सूखते हुए कपड़ों पर बच ही जाती है
देह-गंध की नम आँच
पायँचे के घुटनों पर रेंग ही आती है मुलायमियत

सब कुछ थोड़े ही ख़त्म हो जाता है
मृत्यु के बाद भी बचे रहते है अस्थि फूल
सूखे जलाशय के तलछट में जीवित रहती है एक अकेली मछली
विशाल मरुस्थल की छाती पर सूरज के खिलाफ़
लहराता है खेजरी का पेड़

सब कुछ नहीं होता समाप्त
हमारे बाद भी बचा रहता है जीने का घमासान
भूख के बावजूद बच ही जाते है थाली में अन्न के टुकड़े
निकल ही आता है पुराने संदूक से जीर्ण होता प्रेम-पत्र
सबसे हारे क्षणों में मिल ही जाता है दोस्त ठिकाना

सब कुछ थोड़े ही मिट पाता है
उम्र के बावजूद भी बचे रहते है देह पर प्रेम-निशान
जीवन के सबसे मोहक क्षणों में भी चिपका रहता है बीत जाने का भय

सब कुछ नहीं होता समाप्त।